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एक सरकारी शिक्षक की सरकारी जिंदगी

सुबह उठो, स्कूल जाओ, काम करो, खाओ, सो जाओ, फिर से शुरू करो।

सोमवार का दिन था | एक करकस सी आवाज कानो में पड़ते ही बिना आँखों को खोले ही, साहब ने हाथो को तकिये के नीचे डाला और एकाएक वह आवाज गुमसुम सी हो गई | आवाज के बंद होते ही फिर से एक प्यारी सी झपकी के साथ तकिये को दबाते हुए साहब ऐसे सो गये, जैसे मानो मुख्य मंत्री द्वारा छुट्टी की घोषणा कर दी गई हो |

लेकिन फिर पांच मिनट बाद एक और टर्र-टर्र सी आवाज कानो में पड़ी , चूंकि इस बार आवाज़ कही और से आ रही थी, इसलिये इस बार तकिये के नीचे हाथ डालने पर भी आवाज बंद होने का नाम नही ले रही थी | आवाज से छुटकारा पाने के लिए साहब ने सिर को तकिये के नीचे ऐसे घुसा लिया जैसे कोई शतुर्मुर्ग खतरे को भाप कर अपने सिर को रेत में घुसा देता हो | कई प्रयासो के बाद भी जब साहब आवाज से छुटकारा पाने में सफल नही हुए तो साहब कुछ इस तरह उठे की जैसे कोई 80 वर्ष का बुजुर्ग हो | बड़ी मुश्किलो के बाद लडखडाए पैरे से साहब उठे और जैसे तैसे घडी के अलारम को बंद किया | साहब को सुबह उठने की आदत नही है, इसिलिए रोज रात को दो अलग-अलग घड़ी में अलारम जो लगा कर सोते है | एक अलारम तो साहब मोबाइल में लगा कर तकिये के नीचे रखते है और एक अलारम घड़ी में लगाकर अपने बिस्तर से कुछ दूर रखते है | ताकि नींद के लगाव में सुबह कही दूसरे अलारम को भी बंद कर सो न जाए |

खैर सुबह की नींद तो सभी को प्यारी होती है | और हमारे साहब भी प्यार करने में किसी और से कम नही है , मेरा मतलब सुबह की नींद से था | उठने का तो बिलकुल भी मन नही था | लेकिन करते भी क्या, हफ्ते का पहला दिन जो था | और चूंकि उम्र के आखरी पड़ाव में साहब को भगवान की असीम अनुकम्पा ( दया ) से सरकारी नौकरी का सुख पाने को मिला था | इसलिए साहब इस सरकारी नौकरी का आनंद सुबह की नींद के कारण गवाना नही चाहते थे | सरकारी नौकरी पाने का सुख कहे या दुःख यह तो साहब ही बता सकते है | क्योंकि इस नौकरी से पहले साहब की अपनी खुद की कपड़ो की दुकान थी | जिसमे काम करने के लिए साहब ने 3 लड़के रखे थे| उनमे से एक तो साहब के गाँव का ही कोई था | इसीलिए उन दिनों सुबह उठने की चिंता कभी नही रही | चलो वो तो पुरानी बात है |

बड़ी मुश्किल से आँखों को मलते हुए, अंगड़ाई लेकर बदन को इतने बार मरोड़ा गया, लगा शरीर के सभी 206 हड्डियों को चटकाना उन सभी के लिए आवश्यक होता हो जो सुबह-सुबह उठते है | कुछ समय तक तो साहब नींद के आगोश से बहार आने की जद्दोजहद में यू ही बिस्तर में बैठ कर ऐसे अंगड़ाई पे अंगड़ाई ले रहे थे जैसे मनो किसी प्रकार की अंगड़ाई लेने की प्रतिस्पर्धा चल रही हो |

अब तक साहब की नींद खुल चुकी थी | लेकिन फिर भी साहब बिस्तर को कुछ इस तरह देख रहे थे जैसे कोई मासूम बच्चा अपने माँ के गौद को देखता है | लेकिन फिर उम्र के आखरी पड़ाव पर मिली उस सरकारी नौकरी का ख्याल आया तो साहब ने एक बार फिर घडी में देखा , घडी देखते ही साहब की सारी नींद ऐसे रफूचक्कर हो गई, जैसे मनो मंदिर के बहार से किसी के नए-नए जूते |

उठते–उठते पांच बजे के अलारम ने अब सात बजने का इशारा कर दिया था | और अभी तो बहुत कुछ करना था | क्योंकि अब सब कुछ जल्दी जल्दी करना था इसलिए साहब की फुर्ती को देख ऐसा लग रहा था जैसे कोई राजनेता चुनाव से पहले काम करता हो |

अब यहाँ साहब की बहुप्रतिभा के गुण देखने को मिलने वाले थे | इतने कम समय में नहाना साहब के बस की बात न थी | इसलिए साहब ने हाथ-मुँह धोते हुए गीले तौलिये से अपने बदन को कुछ इस तरह पौंछा, कि मनो मन को बताना हो की यह भी एक नहाने का तरीका है | जिसकी ट्रेनिंग साहब के विभाग द्वारा साहब को दी गई थी |

चूंकि साहब परिवार से अलग रहकर पहाड़ के किसी गाँव में नौकरी कर रहे थे, इसलिए सुबह उठने से लेकर खाना बनाने और खाये हुए जूठे बर्तन तक साहब को खुद ही धोने पड़ते थे |

यकीन करना मुश्किल है लेकिन साहब ने 20 मिनट में ही सभी कार्य पूर्ण कर लिए थे | जिसे करने में लोगो के दो-दो घंटे लग जाया करते है | इस 20 मिनट में साहब ने नास्ता भी कर लिया था | क्योंकि साहब के ऑफिस जाने में देरी हो रही थी, इसलिए नास्ते के झूठे बर्तन धोना साहब ने मुनासिब न समझा | दरवाजे के पीछे टंगे कील पर से कपड़ो को निकल कर झाड़ते हुए साहब बड़े ही जल्दी में उन्हें पहेनते है | साहब को जूते के तस्मे बांधने में समय गवाना पसंद न था, इसलिए बिना तस्मे वाले ही जूते पहनना पसंद करते थे | जब साहब को यकीन हो गया की वो अब अपने काम पर जाने को तैयार हो चुके है तो अलमारी में पड़े दो कलम ( पेनों ) लाल और नीली को अपने कमीज़ के जेब में रखते है | लाल कलम से याद आया, शायद आपको बताना भूल गया की साहब एक सरकारी शिक्षक है | जो अपने परिवार से दूर किसी अनजाने गाँव में बने स्कूल में अपनी सेवा दे रहे हैं , जिसका नाम मानचित्र ( map ) में धुंडने से भी न मिलता था | क्यूंकि साहब और दिनों के मुताबिक़ कुछ देरी से उठे थे | इसीलिए सब कुछ जल्दी-जल्दी हो रहा था | लेकिन एक मशहूर कहावत है न “ एक तो मिया बावरे उसपर पी ली भांग “ साहब को पहले से ही स्कूल के लिए देरी हो रही थी, अब जैसे ही दरवाजे में ताला लगाने को हुए तो देखा ताले की चाबी ही नही मिल रही | अपनी किस्मत को कोसते हुए साहब चाबी दूंढने लगे, चाबी दूंढते- दूंढते साहब ने उन पांच मिनटों में अपने छोटे से कमरे की सभी जगह देख डाली, जहां पिछले तीन महीनो से साहब ने देखा तक नही था | पर कम्बखत चाबी की बजाए वो सरे सामान मिल गये जो पिछले कुछ महीनो से साहब ढूंड रहे थे | आखिरकार थक-हारकर पसीना पोछने के लिए साहब ने जैसे ही अपने पेंट की जेब में हाथ डालकर रुमाल निकली तो उसके साथ चाबी भी बहार आ गई | साहब को पहले तो अपनी बुद्धि पर बहुत गुस्सा आया , लेकिन समय को देखते हुए साहब ने खुदको कोसने की बजाए , दरवाजे को बंद कर उसमे ताला लगाया और फुर्ती से जंगल की और चल पड़े |

 

 

घर से निकलते निकलते अब तक सात बजकर बीस मिनट हो चुके थे | क्यूंकि स्कूल का रास्ता जंगल से होकर जाता था, और जंगल में जंगली जानवरों का भी खतरा रहता है , ऐसा गाँव वालो का कहना था | इसलिए साहब के हाथो में हमेशा एक छड़ी रहती थी | लेकिन आज तक साहब ने उस रस्ते पर किसी जानवर को नही देखा था सिवाय गाय और बकरियों के |

साहब की चाल देख कर ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो ओलंपिक के किसी मैराथन दौड़ में साहब ने हिस्सा लिया हो | अब तक आधा रास्ता भी तय नही हुआ था, पर साहब का चेहरा पके हुए लाल टमाटर सा हो चूका था | उबड़ – खाबड़ व संकरे रस्ते में साहब ऐसे चले जा रहे थे जैसे ऊँट रेगिस्तान में अपने मस्ती में चलता हो | कुछ समय चलने के बाद साहब एक पानी के धारे के पास पहुचे | पानी के पास पहुचते ही साहब को देख ऐसा लग रहा था जैसे- “जल बिन मछली” | अपनी प्यास बुझाते हुए, हाथो में पानी लेकर साहब ने अपने तपते चेहरे पर डाला और एक नए जोश के साथ अपने मंजिल की ओर चल पड़े | अब साहब कुछ तरोताजा से दिख रहे थे | मानना मुमकिन ना था पर साहब ने एक घंटे का रास्ता बीस मिनट में पूरा कर दिया था |

स्कूल पहूँचते ही साहब ने घडी में समय देखा, और एक लम्बी साँस लेते हुए खुद को शाबासी दी | क्यूंकि साहब वक़्त से पांच मिनट पहले ही पहुंचे गए थे |

सभी बच्चो ने अपने गुरुजी का अभिवादन किया और उनके सिखाये अनुसासन के अनुसार बच्चो ने स्कूल की घंटी बजाते हुए, सुबह की प्रार्थना सभा की तयारी सुरु कर दी | बड़े ही नम्रता के साथ प्रार्थना सुरु हुई और रास्ट्रीय गान जोश के साथ गाते हुए प्रार्थना सभा की गतिविधियों का समापन हुआ |

ठीक आठ बजे साहब ने उपस्तिथि पंजिका में अपने हस्ताक्षर किये | एकल विद्यालय होने के कारण साहब स्कूल में एकमात्र अकेले शिक्षक थे, इसलिए साहब को अकेले ही सभी कार्य करने पड़ते थे | समय-सरणी के अनुसार साहब बच्चो को पढ़ाने लग गए | बच्चो को पढाते-पढाते समय का पता न चला और पांच घंटे बीत गए | छुट्टी का समय हो चूका था, इसलिए एक क़तार में बच्चो को खड़े कर एक जोश के साथ बच्चो व उनके गुरूजी द्वारा देश गान गया गया |

स्कूल की छुट्टी हो चुकी थी और बच्चे अपने अपने घरो को जा चुके थे | स्कूल के सभी दरवाजो को अच्छे से बंद कर साहब आसमान की ओर देखते है | सूरज दिन की अपनी प्रचंड अवस्था में था | सुबह तो साहब एक घंटे का सफ़र बीस मिनट में पूरा कर गये थे | पर अब ऐसा करना मुमकिन न था | हाथ में छड़ी लिये कदमो को आगे बडाते हुए साहब वापस घर की ओर चल पड़े | लेकिन इस बार साहब ने घर पहुँचने में दो घंटे लगा दिए |

घर पहुचने पर दरवाजे में लगे ताले को खोल जैसे ही अन्दर घुसे तो कमरे का नज़ारा देख साहब के होश उड़ गए | सारा सामान बिखरा पड़ा था | कमरे में चोरी हुई है ऐसा न था | दरअसल यह सब सुबह ताले की चाबी न मिलने पर साहब द्वारा खुद का किया गया उथल-पुथल था |

भूख अपने चरम सीमा पर थी और दिन का खाना भी बनाना था | पर कमरे का हाल देख कुछ समझ न आ रहा था | साहब ने ऐसा व्यंजन बनाने की सोची जिसको बनाने में सबसे कम समय लगता हो | अपने मन को शांत करते हुए साहब ने अपने देश की सबसे प्रसिद्ध व्यंजन बनाने की सोची, जो साहब को कभी पसंद न थी “ खिचड़ी “| खिचड़ी बनने तक साहब कमरे को दोबारा ठीक करने लगते है | खिचड़ी बनते बनते कमरा भी पहले जैसा हो जाता है | खाना खाकर साहब बिस्तर पर आराम करने के लिए लेट जाते है | थकान से कब आँख लग जाती है साहब को पता ही नही लगता |

अचानक साहब की नींद खुलती है और खिड़की के बहार घनघोर अँधेरा देख साहब जैसे ही घडी में देखते है तो साहब के होश उड जाते है | क्योंकि अब रात के आठ बज चुके होते है | और साहब को सुबह और दिन के झूठे बर्तनों को धोने के साथ साथ रात का खाना भी बनाना था |

समय सीमा को ध्यान में रखते हुए साहब ने झटपट अपने हाथो को चलाया और समय रहते सभी कामो को पूरा कर रात का खाना भी खा लिया | खाना खाते खाते तक़रीबन रात के दस बज चुके थे | सोने से पहले उपरवाले को याद करते हुए साहब ने एक और दिन अच्छे से बीतने पर भगवन का धन्यवाद् किया |

अब आप सोच रहे होंगे की आखिर मैं साहब के बारे में इतना सब कुछ कैसे जानता हूँ | आपको बता दूँ कि मैं हमेशा साहब के साथ ही रहता हूँ | सुबह उठने से लेकर रात के सोने तक हर पल मैं साहब के साथ ही रहता हूँ | सच कहूं तो मैं 24 घंटे साहब के साथ ही रहता हूँ | वो भी आज से नही तब से मैं साहब के साथ हूँ, जब साहब पैदा हुए थे |

मैं……. साहब की अंतर आत्मा हूँ |

 

 

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